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फिरते हैं कब से दरबदर

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फिरते हैं कब से दरबदर अब इस नगर, अब उस नगर एक दूसरे के हमसफ़र मैं और मेरी आवारगी ना आशना हर रहगुज़र ना मेहरबाँ सबकी नज़र जायें तो अब जायें किधर मैं और मेरी आवारगी इक दिन मिली एक महजबीं तन भी हसीं, जां भी हसीं दिल ने कहा हमसे वहीँ ख़्वाबों की है मंजिल यहीं फिर यूँ हुआ वो खो गयी तू मुझको जिद सी हो गयी लाएँगे उसको ढूँढकर मैं और मेरी आवारगी... ये दिल ही था जो सह गया जो बात ऐसी कह गया कहने को फिर क्या रह गया अश्कों का दरिया बह गया जब कहके वो दिलबर गया तेरे लिये मैं मर गया रोते हैं उसको रात भर मैं और मेरी आवारगी... हम भी कभी आबाद थे ऐसे कहाँ बरबाद थे बेफिक्र थे, आज़ाद थे मसरूर थे, दिलशाद थे वो चाल ऐसी चल गया हम बुझ गये दिल जल गया निकले जला के अपना घर मैं और मेरी आवारगी... मैं और मेरी आवारगी...                                          - जावेद अख्तर