पीपल तले वो पुराना मंदिर, और तालाब किनारे वो स्कूल, यूँ ही पड़ जाते हैं, अब भी मेरे डगर... मैं और मेरी आवारगी ! जब भी कभी चले जाते हैं, नादान-अन्जान फिर तेरे शहर... दिखता है वो बचपन, वो जवानी, वो अल्हड़ता भरी बेतुकी सी कारस्तानी, और नरगिस-ए-नाज़ के, वो दिलकश भंवर... सर्द कतिकी बयार लिए, स्कूली रास्तों के रहगुज़र, तलाब किनारे हैं बैठे मुन्तज़र, पाक़ अर्घ के उस शाम-ओ-सहर, देखने को उस आफ़ताब का असर, आज फिर इक नज़र, छठ के पुराने हमसफ़र,... उसी सफर में शारदा आज, खो गयी नजाने किस डगर, किस नगर... मैं और मेरी आवारगी, और बिहार कोकिला इक नज़र ! - अभय सुशीला जगन्नाथ पीपल तले वो पुराना मंदिर, और तालाब किनारे वो स्कूल, यूँ ही पड़ जाते हैं, अब भी मेरे डगर... मैं और मेरी आवारगी ! जब भी कभी चले जाते हैं, नादान-अन्जान फिर तेरे शहर... दिखता है वो बचपन, वो जवानी, वो अल्हड़ता भरी बेतुकी सी कारस्तानी, और नरगिस-ए-नाज़ के, वो दिलकश भंवर... सर्द कतिकी बयार लिए, स्कूली रास्तों के रहगुज़र, तलाब किनारे हैं बैठे मुन्तज़र, पाक़ अर्घ के उस शाम-ओ-सहर, देखने को उस आफ़ताब का असर, आ