परी-सुरसुन्दरी, अप्सरा-देवांगना


आँखों में शरारत,
अंदाज़ में बेबाकपन,
जैसे अल्हड़ बचपन ...

ये शर्म-ओ-हया,
धड़कनों की घबराहट,
उसपर सुंदर मुस्कराहट ...

तौबा ये शबाब,
खुशबू जैसे गुलाब,
सादगी में भी ताज़गी ...

अद्भुत नज़राना,
कौन हो तुम,
परी या सुरसुन्दरी,
अप्सरा-देवांगना ...

तुमको खुदा ने बनाया है,
या खुद को ही,
ज़मीन पर ले आया है ...
      
                 अभय सुशीला जगन्नाथ

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मैं शब्द रखता हूँ,
वो ज़ज्बात उठाती है ,
मेरे कोरे कागज़ों पर,
किसी कविता सी उतर जाती है
पर पूरी कविता में भी,
वो कहाँ खरी उतरती है,
रोज़ रोज़ भला जन्नत से,

कहाँ ऐसी परी उतरती है

                      अभय सुशीला जगन्नाथ

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