दिवंगत मनीष मिश्रा
कौन है जो एक साये की तरह, मेरे दिल को छूता हुआ गुज़र जाता है,
कभी पास से, कभी दूर से...
एक आवाज़, एक नग़मा, एक गीत बन कर रग-रग में उतर जाता,
कभी पास से, कभी दूर से...
कौन है जो मुझे अपनी तन्हाई का एहसास दिला जाता है,
एक खालीपन, सुनापन छोड़ जाता है...
मैं उससे देखना चाहती हूँ, जानना चाहती हूँ,
उँगलियों से उसके चेहरे को छूना चाहती हूँ...
कौन है जो पास रह कर भी मुझसे दूर है...
क़दमों की आहट सुनती हूँ, पलटती हूँ, उसे देखती हूँ,
तस्वीर बन जाती हूँ, खुदको भूल जाती हूँ,
बेखुद हो जाती हूँ...
सागर सरहदी के लिखे डायलॉग में स्मिता पाटिल की आवाज़ र फिर मीर ताक़ी मीर के ग़ज़ल को ख़य्याम द्वारा संगीतबद्ध नगमे को
एक अलग श्रेणी प्रदान करती लता दीदी की दिलकी गहराइयों को छूती हुयी रूहानी आवाज़ में , फिल्म "बाज़ार" का गीत...
" दिखाई दिए यूँ ,
कि बेखुद किया,
हमे आपसे भी जुदा कर चले,
दिखाई दिए यूँ ...."
गीत और डायलॉग का एक अद्भुत और अविस्मरणीय संगम, आप भी सुनियेगा, आपके भी जेहन में एक अमिट छाप छोड़ जायेगा !
पहले mp3 का ज़माना नहीं था, कैसेट्स में पेंसिल / पेन, स्पेशली वो रेनॉल्ड्स की पेन में डाल, घुमा कर, अंदाज़े पर पसंदीदा गाने तक पहुंचने और फिर उस गीत को सुनने कि कला में कुछ ही लोग माहिर होते थे, आज उसी कला में माहिर एक मित्र की याद बहुत आ रही है
रेनॉल्ड्स पेन से एक और खुरापाती शरारत याद आया,
स्कूल और BHU कॉलेज में रेनॉल्ड्स पेन के ढक्कन का हुक ताली बजा कर तोड़ ,दोस्तों के झुंझलाये चेहरे देखना और उनके मुँह से बनारसी आशीर्वचनों " सा....चू....भो...." से अलंकृत होने का अपना ही आनंद था, जो आज भी जब जेहन में आता है तो अनायास ही हम मुस्कुरा उठते हैं और मजे की बात मेरे इस अज़ीज़ मित्र ने भी कॉलेज और स्कूल के अनेको दोस्तों की रेनॉल्ड्स बर्बाद की थी !
मेरे दिल के करीब रहने वाले, इस मित्र को पहली बार मैनें जब यह गीत अपने वॉकमैन में सुनाया तो वो भी इस डॉयलाग-गीत का कायल हो गया और फिर ब्रोचा में सुबह 3 बजे से इस गीत को अन्य कुछ चुनिंदा गीतों के साथ सुनने का एक अटूट सिलसिला चल पड़ा !
उन चुनिंदा गीतों की भी कहानिया हैं, वो कहानियाँ, फिर कभी....
हम दोनों लोग जब सुबह सुबह इस गीत को उसके Walkman से अटैच्ड Amplifire से होते हुये 10 इंच के Boofer-Speaker पर बजाते थे तो ब्रोचा के जाने कितने लोगों की नींद उड़ जाती थी और ब्रोच-बिड़ला रोड उस गीत की रूहानियत से गूंजायमान हो जाता था
कुछ दोस्तों को दिक्कत भी होती थी, पढ़ने में,
परंतु ज्यादातर दोस्त मेरे मित्र की मित्रता और उसके संगीत प्रेम के कारण चुप रह जाते थे,
कई ऐसे भी थे, जो आकर उसको बोलते ,
" गज़ब गुरु ! क्या संगीत है, मज़ा आ गया "
मेरे मित्र के साथ मैनें जाने कितनी बार इस गाने को सुना और इस गीत-डॉयलाग से अनेक अविस्मरणीय यादें जुड़ती चली गयी, जो जब तक हम दोनों साथ साथ रहे तब तक, उन सुनहरी यादों का ज़िक्र कर अक्सरहा एक दुसरे की मोहब्बत की कहानियों को छेड़ एक दूसरे से आंनद लेते रहे....
अत्यंत दुखद कि मनीष मिश्रा को आज हमारे बीच से ईश्वर के घर गए लगभग डेढ़ दशक होने को आया है परन्तु उसकी अनगिनत हंसाने और रुलाने वाली यादें कभी भी मेरा साथ नहीं छोड़ी , वो सदा मेरे साथ ही रही
और साथ हैं....एक भावुक आदत !
कभी कभी मिट्ठू; मनीष की बेटी और ज्योति दीदी; मनीष की पत्नी, जो अपने आप में एक प्रेरणा हैं,
उनसे बातचीत कर उनका हाल चाल लेकर दिल को तसल्ली देने की .... भावुक आदत !
गई उम्र दर-बंद-ए-फ़िक्र-ए-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले
I spent my life in thoughtful lyrics and composing poetry,
And raised the worth of this poetic art to such a degree...
मैं और मेरी आवारगी,
सोचते हैं कभी कभी,
अपनी मोहब्बत कैसी रही,
फिर खयाल आया अभी अभी,
एक थी इकलौती ज़िन्दगी,
जो मौत तक सांस संग चली,
सफ़र-ए-मोहब्बत में आवारा,
मेरी आवारगी कुछ यूं ढली ...
दिवंगत मनीष मिश्रा को डबडबाये आँखों से याद करते,
मैं और मेरी आवारगी !
- अभय सुशीला जगन्नाथ
ख़यालात-ए-सफर से इस,
दिल-ए-नादान को बचा कर,
याद-ए-रहगुज़र से गुज़रने की,
तमाम कोशिशे नाकाम रही,
अपने ख़यालों की गिरफ्त से,
उसकी बेइंतहा-ए-मोहब्बत ने,
कभी कैद-ए-रिहाई ही न दी,,,,
हम दिल को बचाते रहे,
यादों से जी को चुराते रहे,
वो सांसो में गुज़रता रहा,
धड़कन बन धड़कता रहा
- अभय सुशीला जगन्नाथ
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