सोने न दिया




इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज़्बात ने रोने न दिया
वर्ना क्या बात थी किस बात ने रोने न दिया

(ग़ैरत-ए-जज़्बात = भावनाओं/ संवेदनाओं का स्वाभिमान/ लज्जाशीलता/ ख़ुद्दारी)

आप कहते थे के रोने से न बदलेंगे नसीब
उम्र भर आपकी इस बात ने रोने न दिया

उनसे मिलकर हमें रोना था बहुत रोना था
तंगी-ए-वक़्त-ए-मुलाक़ात ने रोने न दिया

(तंगी-ए-वक़्त-ए-मुलाक़ात = मिलने के समय की कमी)

रोनेवालों से कहो उनका भी रोना रो लें
जिनको मजबूरी-ए-हालात ने रोने न दिया

एक दो रोज़ का सदमा हो तो रो लें 'फ़ाकिर'
हम को हर रोज़ के सदमात ने रोने न दिया

(सदमा = आघात, चोट), (सदमात = सदमा का बहुवचन)

-सुदर्शन फ़ाकिर

यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर तालि-ए-बेदार ने सोने न दिया

(तालि-ए-बेदार = जागता हुआ नसीब, सौभाग्य)

एक शब बुलबुल-ए-बेताब के जागे न नसीब
पहलू-ए-गुल में कभी ख़ार ने सोने न दिया

(बुलबुल-ए-बेताब = व्याकुल/ बेचैन बुलबुल), (पहलू-ए-गुल = गुलाब के आगोश/ बगल/ नजदीक), (ख़ार = काँटा)

रात भर की दिल-ए-बेताब ने बातें मुझ से 
रंज-ओ-मेहनत के गिरफ़्तार ने सोने न दिया
रात भर की दिल-ए-बेताब ने बातें मुझ से
मुझ को इस इश्क़ के बीमार ने सोने न दिया

(दिल-ए-बेताब = व्याकुल/ बेचैन = दिल), (रंज = कष्ट, दुःख, आघात, पीड़ा)

-ख़्वाजा हैदर अली आतिश



ख़ाक़ पर संग-ए-दर-ए-यार ने सोने न दिया
धूप में साया-ए-दीवार ने सोने न दिया

(संग-ए-दर-ए-यार = प्रियतम के द्धार का पत्थर)

शाम से वस्ल की शब आँख न झपकी ता सुब्ह
शादी-ए-दौलत-ए-दीदार ने सोने न दिया

(वस्ल की शब = मिलन की रात), (शादी-ए-दौलत-ए-दीदार = देखने के धन का आनंद)

जब लगी आँख कराहा ये कि बद-ख़्वाब किया
नींद भरकर दिल-ए-बीमार ने सोने न दिया

(बद-ख़्वाब = बुरे सपने)

दर्द-ए-सर शाम से उस ज़ुल्फ़ के सौदे में रहा
सुबह तक मुझको शब-ए-तार ने सोने न दिया

(दर्द-ए-सर = सरदर्द), (शब-ए-तार = काली रात)

सैल-ए-गिर्या से मिरी नींद उड़ी मरदुम की
फ़िक्र-ए-बाम-ओ-दर-ओ-दीवार ने सोने न दिया

(सैल-ए-गिर्या = रोने/ आँसुओं की बाढ़), (मरदुम  = सभ्य पुरुष), (फ़िक्र-ए-बाम-ओ-दर-ओ-दीवार = दीवार, दरवाज़े और छत की चिंता/ घर की चिंता)

बाग-ए-आलम में रही ख़्वाब की मुश्ताक़ आँखें
गर्मी-ए-आतिश-ए-गुलज़ार ने सोने न दिया

(बाग-ए-आलम = दुनिया का बगीचा), (मुश्ताक़ = उत्सुक, अभिलाषी), (गर्मी-ए-आतिश-ए-गुलज़ार = गुलाब के बगीचे की आग की गर्मी)

सच है ग़म-ख़्वारी-ए-बीमार अज़ाब-ए-जाँ है
ता दम-ए-मर्ग दिल-ए-ज़ार न सोने न दिया

(ग़म-ख़्वारी-ए-बीमार = बीमार के साथ हमदर्दी), (अज़ाब-ए-जाँ = पीड़ा), (ता दम-ए-मर्ग = मृत्यु के पल तक)

तकिया तक पहलू में उस गुल ने न रक्खा 'आतिश'
ग़ैर को साथ कभी यार ने सोने न दिया

-ख़्वाजा हैदर अली आतिश





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