शिव की जटा से निकलती गंगा और चाँद

हिमालय पर्वत की खूबसूरत,
सुनयना शिखा ने,
शांत निहारते,
चाँद को कहा कि,
क्यों चुपचाप,
रोज़ तू मुझे देखता रहता है,
इस धरती पर आ,
काया निखार मेरी शिखा की,
बन जा तू मेरे माथे की बिन्दी,

आवारा चाँद चल पड़ा,
खूबसूरत धरा की ओर,
साथ लिए तारों की बरात,
और अलंकृत कर दिया,
शिखा को ले धरा से अंतिम छोर,
चारों दिशाओं मच गया शोर,
चाँद जा बंधा सुनयना शिखा के डोर,

ऐसे अद्भुत दृश्य से,
हुयी प्रफुल्लित पूर्ण सृष्टि,
कान में कहा सुन रे प्रकृति,
कलयुग में !
हिमालय पर्वत पर विराजमान,
सुनयना शिखा से अविरल निकलती,
पवित्र गंगा और हिमकर चाँद जैसी,
सुन्दर होगी इनकी छटा...
सृष्टि का यह वरदान लिए,
काशी नगरी में,
पुनः इनका संगम होगा,
झिलमिलाते तारों का आँगन होगा,
उसी आँगन में स्वयं शिव का जनम होगा,

शिव के माथे पर सुसज्जित,
उस पवित्र गंगा और हिमकर चाँद को,
कोटि कोटि नमन !
और जो अवतरित स्वयंभू रूद्र है,
उस पर न्योछावर ये चमन ...

                           अभय सुशीला जगन्नाथ

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