चार आने की रंग की पुड़िया

चार आने की रंग की पुड़िया, वो गुलाल-अबीर,
वो स्याही वाली कलम जिसने बनाये,
सफ़ेद यूनिफार्म पर नीली और लाल लकीर,
वो टीने की पिचकारी, वो लकड़ी का ढोल-मंजीर,
किसी दुकानदार के पास मिलेगा क्या ?

वो गुजिया, वो पिड़ुकिया,
हाथ के बने पापड़-तिलौड़ी,
छोला और वो मालपुआ,
एक दूसरे के घर में हर माँ ने,
जो बुला बुला कर खिलाया,
वो माँ के हाथ का स्वादिष्ट व्यंजन,
किसी दुकानदार के पास मिलेगा क्या ?

वो बहन की सजाई टेबल और उस टेबल पर,
हाथ की कढ़ाई वाला खूबसूरत क्लॉथ,
टेबल पर शीशे के पतीले में गुलाब जामुन,
नक्काशित चीनीमिट्टी के बर्तन में सेवई-खीर,
और उस से मिलते जुलते कटोरी चम्मच,
टेबल पर हर निगाह जिसे ढूंढती थी,
वो बहन का बनाया, दही बड़ा का बड़ा डोंगा,
और ट्रे में सजे मसाले और नमक-मिर्च,
वो टेबल क्लॉथ और उसपर काढ़े मुरली-मोरपंख,
किसी दूकानदार के पास मिलेगा क्या ?

वो दोस्त की साइकिल, वो पापा की स्कूटर,
हाँ ! वही साइकिल ! जिस पर तीन लोग,
बैठने-चलाने के लिए लड़ते हों,
हाँ ! वही स्कूटर ! जिसपर छह लोग,
बड़े आराम से, अंड़स-अंड़स कर अंटते हों,
गली-गली और घर-घर घूमते,
सुन्दर लड़कियों के घर ढूंढते,
वो साइकिल और वो स्कूटर,
किसी दुकानदार के पास मिलेगा क्या ?

वो कत्थई आँखें, वो धानी चूनर,
शर्म-ओ-हया से सरोबार दुपट्टा,
वो शरारती मुस्कान और अल्लहड़पन,
वो दूर से ही एक दूसरे के तरफ,
गुलाल को बस हवा में उड़ा,
तन छोड़, जो मन को ही रंग गया,
वो मुट्ठी भर गुलाबी गुलाल,
और शरम से लाल गुलाबी गाल,
वो अदा और वो सज़दा,
वो वफ़ा और वो बावफ़ा,
मैं और मेरी आवारगी जिसके तलबगार,
उनका दीदार भी, कभी-कहीं मिलेगा क्या ?
चार आने की रंग की पुड़िया, वो अबीर-गुलाल,
किसी दुकानदार के पास मिलेगा क्या ?

                                              अभय सुशीला जगन्नाथ

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