नव यौवन की दहलीज़
अब की सावन की घटाएं, बदली बदली सी नज़र आती है, तुझपर कुछ लिखने को, बेताब सी कर जाती हैं, जाने कितने मौसम चले गए, पर चौदवीं के सावन की वो बूंदे, वो तेरी पहली बारिश, मेरे ज़ेहन में यादों की, घनघोर बारिश कर जाती है, आ चल इस सावन ले चले तुझे, उसी चौदवीं के सावन में, जहाँ मैं और मेरी आवारगी, आवारा हवाओं-घटाओं के संग, बस यूँ ही, अक्सर चली जाती है ! एक भोली और मासूम, नाज़ुक सी लड़की, नव यौवन की दहलीज़ पर, मुस्कुराती है, खिलखिलाती है, मासूमियत से भरे अल्हड़पन में, इठलाती है, बलखाती है, और आईने पे खड़ी हो जाती है, अब हर रोज़ वो खुद को, उस आईने में निहारती है, और विस्मित हो जाती है, दिन-ब-दिन निखरते यौवन पर, वो बस यूँ ही शरमा जाती है ! पर उस बेशरम आइने को, शरम कभी ना आती है ! भीगे बालों को झटक कर, बिना शाना के, दाएं बाएं शानो पर, एक अदा से घुमाती है, तौबा खुदा ! बादलों से जैसे बारिश गिराती है, और भीगी ज़ुल्फ़ों से खुद को, संवारती है , सजाती है, उन बादलों के बीच से आईने में, इंद्रधनुषी रूप को निहारती है, फिर अपना हुस्न-ए-मिसाल देख, खुद से ही शरमा जाती है ...