चौदवीं के सावन में वो, चौदवीं का चाँद
अब की सावन की घटाएं,
बदली बदली सी नज़र आती है,
तुझपर कुछ लिखने को,
बेताब सी कर जाती हैं,
जाने कितने मौसम चले गए,
पर चौदवीं के सावन की वो बूंदे,
वो तेरी पहली बारिश,
मेरे ज़ेहन में यादों की,
घनघोर बारिश कर जाती है,
आ चल इस सावन ले चले तुझे,
उसी चौदवीं के सावन में,
जहाँ मैं और मेरी आवारगी,
आवारा हवाओं-घटाओं के संग,
बस यूँ ही, अक्सर चली जाती है !
एक भोली और मासूम,
नाज़ुक सी लड़की,
नव यौवन की दहलीज़ पर,
मुस्कुराती है, खिलखिलाती है,
मासूमियत से भरे अल्हड़पन में,
इठलाती है, बलखाती है,
और आईने पे खड़ी हो जाती है,
अब हर रोज़ वो खुद को,
उस आईने में निहारती है,
और विस्मित हो जाती है,
दिन-ब-दिन निखरते यौवन पर,
वो बस यूँ ही शरमा जाती है !
जैसे चौदवीं के सावन में वो,
चौदवीं का चाँद नज़र आती है !
भीगे बालों को झटक कर,
बिना शाना के,
दाएं बाएं शानो पर,
एक अदा से घुमाती है,
तौबा खुदा !
बादलों से जैसे बारिश गिराती है,
और भीगी ज़ुल्फ़ों से खुद को,
संवारती है , सजाती है,
उन बादलों के बीच से आईने में,
इंद्रधनुषी रूप को निहारती है,
फिर अपना हुस्न-ए-मिसाल देख,
खुद से ही शरमा जाती है !
जैसे चौदवीं के सावन में वो,
चौदवीं का चाँद नज़र आती है !
भीगे सौन्दर्या बदन से,
ओस की बूंदों की तरह,
एक एक कर नीचे गिरती,
उन बूंदों को आईने में देख,
जब हया से वो मुस्काती है,
बूंदे भी शर्म-ओ-हया में डूब,
खूबसूरत गालों के डिंपल में,
जाकर के छिप जाती है,
तौबा खुदा क्या कहर ढाती है,
फिर धीरे से वो गुस्ताख़ बूंदे,
गले की ओर ढरक जाती है,
अपने हुस्न पर सरकते ढरकते,
उन गुस्ताख़ बूंदो को देख,
वो खुद से ही शरमा जाती है !
जैसे चौदवीं के सावन में वो,
चौदवीं का चाँद नज़र आती है !
आसमानी चमकते बादलों के बीच,
काली घटाओं सी पलकों को,
आइने कि ओर,
एक नज़ाकत से उठाती है,
फिर उसकी बड़ी खूबसूरत आँखें,
आईने से ही,
आंखें चार कर जाती है,
और खुदाया पाक चेहरे को,
चमकते सितारों के दरम्यान,
इकलौता चाँद समझ,
वो एक टकटकी लगाती है,
आँखें ऊपर से नीचे बढ़ाती है,
और तराशे सौंदर्य को देख,
आँखें खुद-ब-खुद,
शरम से बंद हो जाती है !
जैसे चौदवीं के सावन में वो,
चौदवीं का चाँद नज़र आती है !
क्या आज भी बारिश की बूंदे,
वैसे ही गुस्ताख,
तुझपर गिर जाती हैं,
और तुझे चौदवीं के सावन सी,
वैसे ही भींगा जाती है,
फिर तू खुद को आईने में देख,
खुद से ही शरमा जाती है !
क्या अबके सावन में भी तू,
चौदवीं का चाँद नज़र आती है !
- अभय सुशीला जगन्नाथ
बदली बदली सी नज़र आती है,
तुझपर कुछ लिखने को,
बेताब सी कर जाती हैं,
जाने कितने मौसम चले गए,
पर चौदवीं के सावन की वो बूंदे,
वो तेरी पहली बारिश,
मेरे ज़ेहन में यादों की,
घनघोर बारिश कर जाती है,
आ चल इस सावन ले चले तुझे,
उसी चौदवीं के सावन में,
जहाँ मैं और मेरी आवारगी,
आवारा हवाओं-घटाओं के संग,
बस यूँ ही, अक्सर चली जाती है !
एक भोली और मासूम,
नाज़ुक सी लड़की,
नव यौवन की दहलीज़ पर,
मुस्कुराती है, खिलखिलाती है,
मासूमियत से भरे अल्हड़पन में,
इठलाती है, बलखाती है,
और आईने पे खड़ी हो जाती है,
अब हर रोज़ वो खुद को,
उस आईने में निहारती है,
और विस्मित हो जाती है,
दिन-ब-दिन निखरते यौवन पर,
वो बस यूँ ही शरमा जाती है !
जैसे चौदवीं के सावन में वो,
चौदवीं का चाँद नज़र आती है !
भीगे बालों को झटक कर,
बिना शाना के,
दाएं बाएं शानो पर,
एक अदा से घुमाती है,
तौबा खुदा !
बादलों से जैसे बारिश गिराती है,
और भीगी ज़ुल्फ़ों से खुद को,
संवारती है , सजाती है,
उन बादलों के बीच से आईने में,
इंद्रधनुषी रूप को निहारती है,
फिर अपना हुस्न-ए-मिसाल देख,
खुद से ही शरमा जाती है !
जैसे चौदवीं के सावन में वो,
चौदवीं का चाँद नज़र आती है !
भीगे सौन्दर्या बदन से,
ओस की बूंदों की तरह,
एक एक कर नीचे गिरती,
उन बूंदों को आईने में देख,
जब हया से वो मुस्काती है,
बूंदे भी शर्म-ओ-हया में डूब,
खूबसूरत गालों के डिंपल में,
जाकर के छिप जाती है,
तौबा खुदा क्या कहर ढाती है,
फिर धीरे से वो गुस्ताख़ बूंदे,
गले की ओर ढरक जाती है,
अपने हुस्न पर सरकते ढरकते,
उन गुस्ताख़ बूंदो को देख,
वो खुद से ही शरमा जाती है !
जैसे चौदवीं के सावन में वो,
चौदवीं का चाँद नज़र आती है !
आसमानी चमकते बादलों के बीच,
काली घटाओं सी पलकों को,
आइने कि ओर,
एक नज़ाकत से उठाती है,
फिर उसकी बड़ी खूबसूरत आँखें,
आईने से ही,
आंखें चार कर जाती है,
और खुदाया पाक चेहरे को,
चमकते सितारों के दरम्यान,
इकलौता चाँद समझ,
वो एक टकटकी लगाती है,
आँखें ऊपर से नीचे बढ़ाती है,
और तराशे सौंदर्य को देख,
आँखें खुद-ब-खुद,
शरम से बंद हो जाती है !
जैसे चौदवीं के सावन में वो,
चौदवीं का चाँद नज़र आती है !
क्या आज भी बारिश की बूंदे,
वैसे ही गुस्ताख,
तुझपर गिर जाती हैं,
और तुझे चौदवीं के सावन सी,
वैसे ही भींगा जाती है,
फिर तू खुद को आईने में देख,
खुद से ही शरमा जाती है !
क्या अबके सावन में भी तू,
चौदवीं का चाँद नज़र आती है !
- अभय सुशीला जगन्नाथ
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