खुदा की पनाहगाह

सहर-ए-आफ़ताब,
या
शब्-ए-माहताब,
क्या कहें तुझे ऐ जनाब,
पाक खुदा सा तू शादाब,
तू क्या सचमुच में है भी,
या रोज़ देखता हूँ,
मैं कोई ख्वाब !

काली रेशमी जुल्फें,
हवा में यूँ लहराए,
जैसे काले बादल,
सावन की घटाएं,
जो यूँ तो हर वक़्त,
सुकून-ओ-चैन बरसाए,
पर तेरे पाकीज़ा चेहरे को,
किसी बला की नज़र न लगे,
इसीलिए पहरा देती रहती हैं,
नक़ाब बनकर काली ज़ुल्फ़ें,
जैसे स्वयं काली बलाएं !

तेरे माथे की पाक तासीर,
जिस पर मुस्कान संग पड़ी,
तो क़दमों में मोहब्बत की जागीर,
गर टेढ़ी ! संग नैन शमशीर,
तो क़हर बेमिसाल, बेनज़ीर !

तौबा ये दीवानों की तलब,
तेरे मुस्कान पर बिखरते,
खुशनुमा फूलों की ललक,
शर्म-ओ-हया से लाल गाल,
और हलकी मुस्कान से बनते,
वो छोटे हसीन तलाब-ताल,
उसमें एक कँवल चेहरे की,
तौबा वो खूबसूरत झलक,
ख़ुदा भी देख रहा एक टक,
अपनी ही ख़ुदाई अब तलक !

उस जन्नत के पाकीज़ा दरख़्त,
तेरे गर्दन से मिसाल ले,
हो चले कहीं नाज़ुक कहीं सख्त !

तेरा बदन,
एक आग का दरिया,
हूर-ओ-अप्सरा सा तराशा हुस्न,
तपिश में भी जैसे,
शरद मौसम का जरिया,
पर तेरी अल्लहड़ अंगड़ाई पर,
दहक उठे,
फिर वही आग का दरिया !

तेरे नाज़ुक गुलाबी लब,
जब गर्म साँसों को,
अपनी गिरफ्त से छोड़ते हैं,
सुर्ख हो जाते हैं होठ बेसबब,
पर हवाओं में तेरे साँसों की,
खुशबू बिखेर जाते हैं,
कभी बा-अदब,
कभी बे-अदब !

दो बाहों की अता,
कैसे करूँ मैं बयां,
एक धरा पर स्वर्ग,
दूसरी जहां, जन्नत वहां ...

तेरे हाथों की लकीरे,
उस जहान की राहे नक्श है,
जिस जहान की तू खुदाबक्श है !

तेरे पैरों को हाथों से छूकर,
चाहता हूँ मैं भी कर लूँ यकीन,
कि सच में उस जहान से,
उतरी है एक परी हसीन,
मेरी मंज़िल की राह-ए-निशान,
उन हसीन पैरों तले की ज़मीन ...

उस मंज़िल की ओर,
आवारा चलते चलते,
मिली दो मैकदे सी,
नशीली आँखें गुमां,
जो दो होकर भी हज़ारों,
करती हैं अफ़साने बयां !

तेरी झील सी आँखों में,
पाने को सुकूने पनाह,
मैं और मेरी आवारगी भी,
पहुंचे थे एक रोज़ वहां,
पर दिल से,
बस यही एक आवाज़ आयी,
वाह !
एक में ईश्वर,
तो दूजे में अल्लाह !
तेरी आंखे,
खुदा की भी पनाहगाह !

                          - अभय सुशीला जगन्नाथ 

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