प्रेम सिन्दूरी, एक नायाब रंग

फ़िज़ाओं में ये कैसी लाली,
नीला आकाश भी लाल,
सतरंगी इन्द्रधनुष भी लाल,
सुन्दर धरा भी है लाल,
समुन्दर भी हो गया लाल,
देख कर ये कमाल,
दिल हो चला इंतेहा बेहाल,
निशब्द हैं, हैरान हैं,
मैं और मेरी आवारगी,
हक़ीक़त है या सपना कोई,
या मोहब्बत की तृष्णागि,
बता दे मुझे मेरी " दीवानगी " !

" दीवानगी " ने मुस्कुराकर कहा,
मैं तो अपने जन्नत जहाँ में थी,
इस खूबसूरत धरा पर,
तू मुझे मांगकर लाया,
मैंने फिर दिखाई, अपनी माया,
और हर मौसन से रंग चुराया,
हर फूल से उसकी खुशबू ले ली,
सुबह-ए-लालिमा का रंग मिलाया,
फिर इश्क़ और मोहब्बत से,
प्रेम सिन्दूरी, एक नायाब
रंग बनाया,
और उसी खुशनुमा रंग से,
 तुझको "वरण" कर मांग सजाया,
सारे क़ायनात के रूबरू !
सुनो, वही सिन्दूरी लाल रंग,
बिखरा हुआ है हर सू,
इसीलिए हैरान हैं, निशब्द हैं,
आवारगी तेरी, और संग में तू !

और सुन मेरे महबूब-ए-नायाब,
अभी और भी पूरे होंगे तेरे ख्वाब,
जब होगा तू बेमिसाल कामयाब,
तब चमकेगी मेरे माथे की बिंदी,
तेरे माथे पर बन कर आफ़ताब !

                         -  अभय सुशीला जगन्नाथ 

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