रात गयी ! बात रह गयी !
रात गयी, बात रह गयी,
बातों बातों में ही फिर देखो,
एक और रात जाने को है,
हुस्न और इश्क़ की रंगीनियत,
और तेरी खामोश मासूमियत,
जाने कितने अनगिनत अफ़साने,
दो रूहानी आँखों से कह गयी !
फिर तेज़ धड़कनो का ऐसा तूफ़ान उठा
जैसे नरम गरम सांसों की मिलकियत,
कैद ज़िन्दगी को कुछ आज़ाद घड़ियाँ,
ता-उम्र के लिए एक सौगात दे गयी !
सौगात दे ! देखो एक और रात गयी,
बात फिर तनहा ही रह गयी,
अब की रात जो आना,
तो जाने की ज़िद न करना,
रात को भी मैं रोक लूँगा,
अगर तुम रात भर रह गयी !
तेरे पहलू से बंधी ये रुकी रात,
हर ठहरे लम्हात में,
तेरे मेरे गहरे ज़ज़्बात को,
एक दूजे को प्यार से कह गयी,
दो आत्माएं दरिया सी देखो,
मन से मन के संगम में,
निस्छल-अविरल बह गयी,
रात तो रुक गयी,
और बात भी सब कह गयी,
पर जाने क्यों एक क़सक
एक प्यास फिर से जग गयी !
- अभय सुशीला जगन्नाथ
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