बाग़ में सुनयना

जब तू सुबह सुबह,
अपने बाग़ में जाती है,
तो क्या तुझे पता है,
सर्दियों में सर्द हवाएं ,
शिद्दत गर आवारा ,
सच्ची बारिश की फुहार सी,
एक बेचैनी लिए,
तुझे छूने को,
तेज़ बहने लगती हैं,
क्योंकि वो तेरे गालों की तपिश,
और तेरे बदन की खुशबू लेकर,
ज्यादा सुकून और सुगन्धित होकर,
शांति और सुकून से बहना चाहती हैं,
तेरी शांत और खामोश आँखों की तरह,
प्रकृति की बेमिसाल कृति हो तुम,
सर्दियों में उन बाग़ों के फूल,
जहाँ तू बैठी होती है,
और ज्यादा खिलने लगते हैं,
क्यूंकि तेरे ज़ेहन-ए-जहान में,
जान-ए-जहान बन,
उन सर्द हवाओं संग ,
मैं और मेरी आवारगी,
जब चुपके से गुज़रते हैं,
तो अनायास ही तू मुस्कुरा देती है,
तब सर्दियों में मुरझाये फूल भी,
तेरी शर्मीली मुस्कान से,
ऊर्जावान हो खिल उठते हैं,
जैसे सूरज की किरणे ही,
उनको गुदगुदा रही हो,
प्रकृति के मन और आत्मा को,
अपने प्यार के मार्मिक स्पर्श से,
भाव-विभोर करती,
सुकुमारता और कोमलता के साथ,
सच्ची सुख-शांति की भाव-धारा,
हौले-हौले अपनी आभा के साथ
सम्मिश्रित करती,
बेइंतहा खूबसूरत,
सुनयना, यानि तू,
बाग़ में जब भी बैठती है,
तो मन के अन्तः करण तक,
अभिभूत करती सुन्दर आभा में,
भगवान् भी खो जाते हैं,
इसीलिए तो सूरज सर्दियों में,
कुछ देर से निकलता है ....

                                 - अभय सुशीला जगन्नाथ



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