रो लेने दे मुझको आज

तेरे दामन से लिपट कर,
जाने क्यों आंसूं ही दे रहे,
जन्नत-ए-सुकून,
इन पलकों में सिमट कर !
तेरे शानों पर सर रखकर,
बहाने दे आँखों का समंदर,
छुपा ले मुझे अपनी गोद में,
और थम जाने दे ये बवंडर,
या तो घुटते हुए चुप रहे,
या फिर सब बोल दें,
भले अनवरत आंसूं बहे,
शिकवा-ए-गम
एक तू ही तो समझाता है,
और किसी से कैसे कहें !
इस अहसास में आज मैं,
जी भर कर रो रो दम लूँगा,
और करूँगा फिर वही वादा,
कि फिर न कभी तुझे गम दूंगा !
कि ले कर आयें हैं वो तूफ़ान,
और बहा ले जाएंगी,
हमको तुमको यहाँ वहां,
पर मैं और मेरी आवारगी
अपनी इस मोहब्बत पर,
करते हैं गुरूर और है गुमान,
कि रहेंगे बनकर सांस और जान,
ये धरती हो, आकाश हो,
या फिर हो वो जहान !
- अभय सुशीला जगन्नाथ
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