ज़िन्दगी तुझ संग पूरी है !
मौत से तो आशिकी हो गयी,
ज़िन्दगी से तो बस मज़बूरी है,
मेरे दिल को धड़कन से तेरे,
अब यह कहना ज़रूरी है,
चलती रहे मेरी सांसें इसलिए,
यूँ ही तेरा इन रगों में मेरे,
बहते रहना ज़रूरी है,
मन के प्रेम की जाने कितनी,
आशाएं अब तलक अधूरी हैं,
आँखों से आंखें चार हुयी थी,
तन का मिलन भी तो ज़रूरी है !
बाँहों में बाहें, होठों पर होठ,
तेरे बदन से निकले कस्तूरी है,
पवित्र प्रेम का प्रणय सन्सर्ग,
ये संगम देख कितना सिन्दूरी है,
जिस्म रूह से कह रही जैसे,
आत्मा तो इस तन की धुरी है
आत्मिक मिलन की ऐसी बेला हो,
तब ज़िन्दगी तुझ संग पूरी है !
नहीं तो मैं और मेरी आवारगी,
आवारा यूँ ही कहते फिरेंगे,
मौत से ही आशिकी हो गयी,
ज़िन्दगी से तो बस मज़बूरी है !
- अभय सुशीला जगन्नाथ
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मौत से तो आशिकी हो गयी,
ज़िन्दगी से तो बस मज़बूरी है,
मेरे दिल को धड़कन से तेरे,
अब यह कहना ज़रूरी है,
चलती रहे मेरी सांसें इसलिए,
यूँ ही तेरा इन रगों में मेरे,
बहते रहना ज़रूरी है,
मन के प्रेम की जाने कितनी,
आशाएं अब तलक अधूरी हैं,
आँखों से आंखें चार हुयी थी,
तन का मिलन भी तो ज़रूरी है !
बाँहों में बाहें, होठों पर होठ,
तेरे बदन से निकले कस्तूरी है,
पवित्र प्रेम का प्रणय सन्सर्ग,
ये संगम देख कितना सिन्दूरी है,
जिस्म रूह से कह रही जैसे,
आत्मा तो इस तन की धुरी है
आत्मिक मिलन की ऐसी बेला,
अब ज़िन्दगी तुझ संग पूरी है !
- अभय सुशीला जगन्नाथ
ज़िन्दगी से तो बस मज़बूरी है,
मेरे दिल को धड़कन से तेरे,
अब यह कहना ज़रूरी है,
चलती रहे मेरी सांसें इसलिए,
यूँ ही तेरा इन रगों में मेरे,
बहते रहना ज़रूरी है,
मन के प्रेम की जाने कितनी,
आशाएं अब तलक अधूरी हैं,
आँखों से आंखें चार हुयी थी,
तन का मिलन भी तो ज़रूरी है !
बाँहों में बाहें, होठों पर होठ,
तेरे बदन से निकले कस्तूरी है,
पवित्र प्रेम का प्रणय सन्सर्ग,
ये संगम देख कितना सिन्दूरी है,
जिस्म रूह से कह रही जैसे,
आत्मा तो इस तन की धुरी है
आत्मिक मिलन की ऐसी बेला हो,
तब ज़िन्दगी तुझ संग पूरी है !
नहीं तो मैं और मेरी आवारगी,
आवारा यूँ ही कहते फिरेंगे,
मौत से ही आशिकी हो गयी,
ज़िन्दगी से तो बस मज़बूरी है !
- अभय सुशीला जगन्नाथ
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मौत से तो आशिकी हो गयी,
ज़िन्दगी से तो बस मज़बूरी है,
मेरे दिल को धड़कन से तेरे,
अब यह कहना ज़रूरी है,
चलती रहे मेरी सांसें इसलिए,
यूँ ही तेरा इन रगों में मेरे,
बहते रहना ज़रूरी है,
मन के प्रेम की जाने कितनी,
आशाएं अब तलक अधूरी हैं,
आँखों से आंखें चार हुयी थी,
तन का मिलन भी तो ज़रूरी है !
बाँहों में बाहें, होठों पर होठ,
तेरे बदन से निकले कस्तूरी है,
पवित्र प्रेम का प्रणय सन्सर्ग,
ये संगम देख कितना सिन्दूरी है,
जिस्म रूह से कह रही जैसे,
आत्मा तो इस तन की धुरी है
आत्मिक मिलन की ऐसी बेला,
अब ज़िन्दगी तुझ संग पूरी है !
- अभय सुशीला जगन्नाथ
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