ज़ुल्फ़ों की अता, निगाहों के पैमाने

                                                                                                           

               
ज़ुल्फ़ों को गिरा कर यूँ ,
ये किसने ये रात सा असर किया,
उनके दरम्यान उठती आँखों से,
ये जिसने ये सहर किया,
उनकी दिलकश अदाओं ने,
मुझ जैसे कई दीवानों पर,
कहर हर पहर किया !

जाने क्यों लोग दीवानों सी,
हुस्न-ओ-शबाब की बातें करते हैं,
तेरे आगे तो माया भी,
शर्मिंदा है, नाकाफी है,
मैं और क्या मिसाल दूँ,
तेरी तो ज़ुल्फ़ें ही काफी है,
ऊपर से इस धरती पर,
निगाहों से क़त्ल की माफ़ी है !
 
शराब है या मदिरा है  ,
या तेरी निगाहों के पैमाने !
बेहोश हैं, मदहोश हैं,
तेरी गलियों के सब दीवाने,
उसपर घनेरी ज़ुल्फ़ों की अता,
बयान कर रहे हैं,
अनगिनत उन दीवानो के अफ़साने,
जो उन ज़ुल्फ़ों के पेंचो में फंसकर,
उन निगाहों की खुमारी में खो कर, 
आवारा फिरते रहते थे, बेचारे दीवाने!
मैं और मेरी आवारगी भी,
अक्सर यूँ ही, 
ख्वाबों में तुझे बिठाये अपने सिरहाने,
घूम आते हैं उस गुज़रे जमाने !
जहाँ फिर देख कर तेरा हुस्न-ए-जमाल,
खुद से पूछ बैठता हूँ वही सवाल,
कि तू परी है, या अप्सरा है,
या खुदाया खुद " खुदा " बेमिसाल !

चंद लम्हे इन ज़ुल्फ़ों में,
हमने भी है गुज़ारा,
दो आँखों में ही मैंने तेरी,
देखा है ज़न्नत का नज़ारा,
उसी जन्नत में बसा ले मुझको,
करदे फिर एक बार तू इशारा,
वरना मैं और मेरी आवारगी,
भटकते रह जाएंगे यूँ ही,
आवारगी में तेरे दर-बदर आवारा !

                                       - अभय सुशीला जगन्नाथ 




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