रियाज़-ए-जन्नत में मुक़म्मल

दिल-ए-नादान की इश्क़ में,
अजीब नादानियाँ छलकती हैं,
दर्द-ए-ज़ख्म का हिसाब,
शायर-ए-फितरत की शायरी में,
शिकवा-ए-इश्क़ सी खूब झलकती है !

इश्क़ की दरारें जाने क्यों, 
उस को नागवार गुज़रती हैं,
पर इसी दरार से तो,
उस मोहब्बत की सुनहरी यादें,
दिल-ए-गहराई में खुशगवार गुज़रती हैं !

इश्क़ की तन्हाईयाँ भी,
जाने क्यों ! उसको नहीं जंचती है !
शब्-ए-तन्हाई में, 
'तुम' हो और 'वो' हैं,
फिर इश्क़ में "फानी" जिस्मों की, 
ज़रुरत तो नहीं लगती है !

शायर-ए-फितरत अक्सर कहता है !
उनके चले जाने से,
न इश्क़ है, न जुनून है !

आँखें मूँद और तू देख तो सही,
तेरी इन दो आँखों में ही,
वो सुन्दर दो नयन अब भी रहते हैं,
उसी निगाह-ए-यार से किये वादा-ए-रुखसत में,
देख क्या जन्नत-ए-सुकून है !
ए दिल-ए-नादान ! उसके सपनो में ही तो,
तेरे जज़्बा-ए-इश्क़ का जोश-ए-जूनून है !

आज भी उस पाक इश्क़ की,
दिल-ए-आवारा को ख्वाहिश होगी,
मगर रहने देना उस पाक इश्क़ को,
दरारों, तन्हाईयों और उन निगाहों में,
अल्फ़ाज़-ए-बयान से वरना,
पाकीज़ा-इश्क़ की नुमाइश होगी !

मैं और मेरी आवारगी, 
यूँ ही ! अक्सर ! ये सोचते हैं,
नश्वर लोग ही शायद, 
इस धरती पर इश्क़ में मिलते हैं,
पर आसमानी शख़्सियत ने,
जिन का मुक़म्मल,
रियाज़-ए-जन्नत में लिखा है,
रूहानी उन रूहों के मिलन का अहसान,
ईश्वर-अल्लाह "फानी" जिस्मों पर, 
कभी नहीं करते हैं, कभी नहीं करते हैं !

                                      -   अभय सुशीला जगन्नाथ 




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