बचपन में थे दोनों, फूल से खिलते !

मैं और मेरी आवारगी ,
बस एक नहीं कई बार तुझे,
फिर से देखना चाहते हैं,
हाँ ! ये दुआ मांगते हैं,
जब तेरी उन्मुक्त हंसी पर,
बचपन में थे दोनों फूल से खिलते,
और चंचल मन के झूलों में,
सपनो संग थे हवा में झूलते !  

सहेलियों संग रस्सी कूदते,
इक्क्ठ दुक्कठ की चौकठ चूमते,
अल्लहड़ बांकपन में फिर से झूमते,
और यूँ ही अकेले छत पर घुमते,
खुले आसमान में खुद की स्वछन्द,
उन्मुक्त ऊंची एक उड़ान ढूंढते,  
और रात को उसी उड़ान से थक कर,
स्टडी टेबल पर किताब संग ऊंघते,
फिर खुद की इन नादानियों पे, 
आपने आप में यूँ ही हँसते,
पर मुझ पे जब नज़र पड़े तब,
त्योरियां चढ़ा और ऐंठा मुँह बना, 
तीखे नयनो से मुझे ऐवीं घूरते,
फिर से देखना चाहते हैं,
हाँ ! ये दुआ मांगते हैं !

वह कप और गिलास में,
ज्यादा चाय लेने की लड़ाई,
एक दूजे के प्लेट में धीरे से,
पनीर और अंडे की चुराई,
फिर उस एक प्लेट में ही,
बॉर्डर खींच-खींच कर खाने की, 
अनगिनत बार छिना-झपटायी !
तुमने चावल के नीचे घी छिपाकर,
जाने कितनी ही बार निपटाई,
और मैंने भी क्या खूब थी खाई,
रात में तुझसे चुपके-छुपके,
चुराई हुयी मक्खन और मलाई,
पर मजे की बात तो यह थी कि,
दोनों ने इस भोली व् नादान चोरियों में,
एक अनकही सी थी समझ बनाई,
कि महीने का होर्लिक्स और अमूलस्प्रे,
दस-पंद्रह दिनों में सूखे ही खाई !

लैंप, लालटेन और कभी ढिबरी की,
ज्यादा रोशनी की होती लड़ाई,
भले ना करते थे हम दोनों, 
एक भी अक्षर की पढ़ाई-लिखाई,
फिर एकदूजे की चुगली करने की,
वो चालाक-चतुराई वाली भलाई !
परन्तु यदि किसी दूसरे की वजह से,
अगर आंसू की एक बूँद भी आई,
फिर तो समझो उस नामुराद की,
बिन बुलाये ही शामत आयी,
पहले बनारसी ' BEEP ' से अलंकृत,
फिर बाद में इत्मीनान व् फुर्सत से,
उस महात्मा की होती खूब कुटाई !

फिर से गर्मी की छुट्टियां आने को हैं,
आम फिर बौराने को हैं,
चलेंगे फिर दोनो वहां, 
गांव के वो बगीचे हैं जहाँ ,
चटकायेंगे खट्टे आम की टिकोरे,
और लेंगे लीची की चुस्कियां,
सहतूत और जामुन के पेड़ों से,
उन तेज आँधियों में फिर से,
दौड़-दौड़ और लूट-लूट खाने को,
चंचल मन ललचाने को हैं !
मैं और मेरी आवारगी ऐंवई देखो
बचपन में फिर से जाने को हैं !

तेरे जन्मदिन पर वो सबसे सुन्दर,
ड्रेस और गिफ्ट खोजने में,
दूकान दुकान सबको परेशान कराते,
और फिर तुझे उस ड्रेस में देखकर,
मन ही मन हम फूले न समाते !

कॉमिक्स और खिलौनों की,
छोटी अनबन से रूठे,
पहले दोस्त के चेहरे पर,
फिर से चवनिया मुस्कान लाते,
कभी घोडा बन, पीठ पर घुमाते,
और तब भी जब न मुस्काये तो, 
कंधो पर तुझे कन्हैया घुमा लाते,
सबसे पहली उस ट्राई साइकिल पर,
जिस पर बैठ दोनों क्या खूब थे इतराते,
उस पर एक बार नहीं, कई बार तुझे, 
फिर से घूमना चाहता हूँ,
हां ! मैं ये दुआ मांगता हूँ !

काश तुझे फिर से लिखना सिखाते,
जो विषय खुद ना समझा हो,
वह सब तुमको कॉन्फिडेंस से पढ़ाते,
और अपने सब होमवर्क से पहले,
तेरे सारे होमवर्क कराते,
भले ही इस महान काम के लिए,
अपने टीचर से खुद पिटाई खाते !

चल पहले पहल सिखाते हैं,
तुझे फिर से साइकिल चलाना,
बाद में लूना और स्कूटर भी चलवाते,
और जो तुम उसको चला न पाओ,
तो साइकिल, लूना और स्कूटर को ही,
खरी खोटी क्या खूब सुनाते, 
और झल्लाते हुए एक-दो लात,
नाटक कर कर उसपर ही चलाते,
फिर तेरे ऑफ मूड को खुश करने को,
बाजार में गोलगप्पे और चाट खिलाते,
फिर आइसक्रीम की चुस्की लेते,
दोनों मज़े में घर को वापस आ जाते !

फिर स्टडी टेबल पर थके हारे से,
मन मार कर यूँ ही बैठ जाते,
और बारी बारी पढ़ते-पढ़ाते ,
चोरी-चोरी एक दूजे को,
छोटी नींद की झपकी सुलाते,
आहट जो आती मम्मी-पापा की,
तो झट एक दूजे को सचेत कर जाते,
कभी कभी तो इन्ही हरकतों पर,
घर में कितनी भी डांट खा जाते,
पर दोनों की छोटी शरारतों में,
एक रत्ती की भी कमी न लाते,
काश फिर से वो दिन लौट आते, 
जब माचिस की डिबिया वाली स्मार्टफोन से,
एक दूजे को,अपना अपना हाल थे सुनाते !

और भी हैं कई सुनहरे दिनों की,
जाने कितनी ही खूबसूरत यादें, 
और हैं अनगिनत कहानियां, 
और उस अल्लहड़पन की बातें,
जिसके लिए बस छत पर जाकर,
फिर से उस लम्बे एंटीना को,
दोनों मिलकर कुछ यूँ घुमाते,
कि दूरदर्शन पर अपने बचपन की, 
गुज़री वह फीचर फिल्म देख पाते !

मैं और मेरी आवारगी,
बस एक नहीं, बल्कि बारम्बार,
यही हैं उस खुदा से मनाते, 
कि काश ! एक बार फिर हम दोनों,
बचपन के वह स्वर्णिम दिन,
जी भर कर ! फिर से जी आते !
और वो सारी खुशियाँ जो,
तुझे अब तक ना मिल पायी हों  ,
उनकी दुआ ! उस नासमझ खुदा से,
बचपन के ही उन स्वर्णिम दिनों में,
जा तेरे लिए पहले मांग आते !
क्यूंकि, सुना है ! बच्चों की मुराद,
ईश्वर ! भूलकर भी नहीं हैं ठुकराते !
                        
                      - अभय सुशीला जगन्नाथ 

  

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