पहली बारिश और बनारस की गलियाँ

ये बारिश की घटाएं,
बदली बदली सी नज़र आती है,
तुझपर कुछ लिखने को,
बेताब सी कर जाती हैं...

जाने कितने मौसम चले गए,
पर आज भी चौदवीं की वो बूंदे,
हाँ वही ! तेरी-मेरी पहली बारिश,
ना जाने कहाँ से आती हैं,
और ज़ेहन-ओ-दिल में यादों की,
घनघोर बारिश कर जाती है....

आ चल इन बादलों संग,
ले चले तुझे उसी चौदवीं में,
जहाँ से आज भी गुज़रती हैं,
वही पुरानी बनारस की गलियाँ,
पतली-सकरी, बेढंग और तंग...
जहाँ मैं और मेरी आवारगी,
आवारा हवाओं-घटाओं संग,
बस यूँ ही आवारगी करते,
अक्सरहा भीगते रहते हैं मलंग...

                       - अभय सुशीला जगन्नाथ 




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