करवा चौथ की रात

मैं और मेरी आवारगी,
शब् भर आवारा तारो से,
अक्सरहां पूछते हैं !

क्या फिर से कोई ख्वाब 
पलकों पर मेरे सजने को हैं,
क्या फिर से मैं और तू,
शब्-ए-वस्ल पे जगने को हैं,
क्या शमा संग परवाना फिर जल जायेगा,,,
 
या फिर सहर-ए-पहर पे रुखसार से तेरे,
आफताब बन हया मुझपर बरसने को है,
क्या हुस्न-ए-जानाँ फिर क़यामत-ए-कहर ढायेगा,,,

फिर अहल-ए-दिल आवारा तारों संग,
करवा चौथ की रात छत पर आएगा,
शब्-ए-वस्ल पे जब वो,
नक़ाब-ए-रुख़ हटाएगा,
तब क्या चांदनी,
और क्या जन्नत-ए-रागिनी,
जब चाँद ही उस रात, 
तुझे देखते शरमा जायेगा ....

               - अभय सुशीला जगन्नाथ 



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