फुल्ल बैक, फुटबॉलर पापा

 " मैंने भगवान को देखा है। वह टेस्ट में भारत के लिए चौथे नंबर पर बल्लेबाजी करता है " = मैथ्यू हेडेन

" जब हम बड़े हो रहे थे तो हम सचिन (तेंदुलकर) को खेलते हुए देखते थे, वह हम सभी के लिए भगवान की तरह थे. उनके आसपास ऐसी चमक/आभा थी " = महेंद्र सिंह धोनी
और इन सब और ऐसे वक्तव्यों की शुरुआत तब हुयी जब सचिन तेंदुलकर 90s के दौर में अपने चरम पर थे, या यूँ कहे जब वह पूरी भारतीय टीम का बोझ, अपने अकेले कंधे पर उठाया करते थे, बात उसी समय की है जब सचिन के आउट होने पर लोग टेलेविज़न बंद कर दिया करते थे, तब उन्ही दिनों, एक दिन दर्शक दीरघा में एक उनका प्रशंसक, एक पोस्टर / प्लेकार्ड लेकर खड़ा हुआ
" अगर क्रिकेट हमारा धर्म है, तो सचिन हमारे भगवान हैं "
हिंदी वाला शायद याद ना आ रहा हो क्योंकि वो पहला बैनर / प्लेकार्ड ही अंग्रेजी में था...
" If Cricket is Religion, then Tendulkar is GOD ! "
क्रिकेट, जिस खेल को 80s के पहले पूरा भारत शायद ही जानता हो, और पूरे भारत को वह खेल शायद ही नियम सहित खेलने आता हो, पर 1983 के कपिल देव के नेतृत्व वाली भारतीय टीम की ऐतिहासिक विश्व कप की जीत के बाद, और फिर धोनी के नेतृत्व में 2007 में T20 वर्ल्ड कप और पुनः उसके बाद धोनी के ही नेतृत्व वाली ऐतिहासिक 2011 विश्व कप की जीत के उपरांत, क्रिकेट, इतनी तेजी से परवान चढ़ा कि आज आप सही में कह सकते हैं कि भारत का वह धर्म जो भारत को एकता / यूनिटी प्रदान करता है वह " क्रिकेट " ही है !
तो भाई, प्रश्न यहाँ यह है कि, क्या 80s के पहले भारत में कोई भी ऐसा खेल ही नहीं था जो गली गली और मोहल्ले मोहल्ले खेला जाता हो !
दिमाग में बसे पुरानी यादों का झोंखा, ख्यालों की रहगुज़र से होता हुआ, इस दिल को, अपने रोम रोम में बसे बचपन में ले जा रहा है, जहाँ छोटे बच्चों की नोक झोंक, और अपने अपने स्पोर्ट्स स्टार की पहेलियाँ चल रही है...
मेरे भी कान में अपनी ही आवाज़ गूँज रही है, जानते हैं क्या !
" हॉकी और मोहम्मद शाहिद ",
ऐसा इसलिए क्यूंकि बनारस का पैदाइश हूँ, है ना ! हो भी सकता है ! क्या पता ?
तो बचपन से जिसका नाम सबसे ज्यादा सुना, एक स्पोर्ट्स हीरो की तरह , " मोहम्मद शहीद " और उसके द्वारा खेले जाने वाला " हॉकी " , लगता है वह खेल ही भारत का पॉपुलर खेल है...
परंतु फिर सोचता हूँ उस समय के सर्वाधिक चर्चित, कपिल देव और सुनील गावस्कर का खेल तो " क्रिकेट " था, जिसका नाम सबसे ज्यादा सुनते थे और अख़बारों में पढ़ते थे !
तो पते की बात यहाँ ये है कि दिल और दिमाग अपने शायराना अंदाज़ में " हॉकी-क्रिकेट " की यादों में विचरण ज़रूर कर रहे है , परन्तु यह माया है, बहकाव है और भटकाव है ....दिल और दिमाग दोनों का !
क्यूंकि अवचेतन मन ; अंग्रेजी में बोले तो Sub-concious Mind अंदर से एक गेंद सा आकार लिए, बड़ा सा, गोल सा, सफ़ेद और काले षट्कोण वाला, उछल उछल कर कह रहा है....
क्या कह रहा है ?
जी हां , एकदम सही पकडे हैं
" फूटबाल / Football "
और उसके पीछे दौड़ते ग्यारह ग्यारह खिलाडी, बड़ा सा मैदान, और दो बड़े गोल पोस्ट !
क्रिकेट के बेरंग सफ़ेद ड्रेस के तुलना में, बचपन के, वो रंग बिरंगे जर्सी भी अब याद आ रहे हैं और साथ में उनके कई नाम भी, अब अवचेतन मन से, दिल-ओ-दिमाग तक का सफर तय कर मेरे ज़ेहन में साफ़ साफ़ दिखाई पड़ रहे हैं.....
हरे-लाल रंग की मोहन बागान क्लब की जर्सी, ईस्ट बंगाल क्लब की लाल-पीली जर्सी, मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब की सफ़ेद-काली और लास्ट बट नॉट लीस्ट अपने डी०एल०डब्ल्यू० की नीली-सफ़ेद ज़ेबरा लाइन वाली...
पूछिए कैसी !............
............बोलो कैसी ?
जी हाँ यह भी सही पकडे हैं , मैराडोना और मेस्सी के, अर्जेंटीना टाइप वाली !
और ज़ेहन में आ रहा है, सब्ज़ी वाली डलिया लगी साइकिल और उसमे अपनी नन्ही फूटबाल लिए, बेफिक्र, सिर्फ फूटबाल के बारे में पूछता हुआ, डी०एल० डब्ल्यू० के ऑफिसर्स एरिया और क्लब के साथ वाले स्वीमिंग पूल के पीछे, बड़े फूटबाल स्टेडियम की तरफ जाता हुआ, एक छोटा सा नन्हा बालक, अपने फुटबॉलर पापा के साथ !
ऑफिसर्स एरिया और क्लब के साथ वाले स्वीमिंग पूल के पीछे, बड़ा फूटबाल स्टेडियम, जहाँ अक्सर ऊपर वर्णित क्लबों के बीच टूर्नामेंट के मैच खेले जाते थे, उसकी बहुरंगी यादें आज भी जब ज़ेहन में आती हैं, तो एक अजीब सी कशिश पैदा कर जाती हैं !
बहुत मजा आता था , अजीब सी दीवानगी और जोश होता था उन 2 घंटो, जब तक मैच चलता था और फिर उसपर पापा का डी०एल० डब्ल्यू० के खिलाड़ियों पर, दर्शक दीरघा से ही, उनका खराब खेल देखकर खीजते हुए चिल्लाना ! क्योंकि, डी०एल० डब्ल्यू० अक्सर टूर्नामेंट हार जाता था !
पापा खीजते और चिल्लाते इसलिए थे, क्योंकि मेरे पापा भी, फूटबाल के बहुत अच्छे खिलाड़ी थे !
बचपन में मेरे गांव के श्रीनाथ क्लब, सेमरिया, रिविलगंज के उम्दा खिलाड़ी थे, मांझी, कोपा, सिधवलिया, जनता बाजार इत्यादि के साथ साथ रसड़ा, बबुरा, रेवती, सुरेमनपुर और अन्य छपरा-बलिया के कई कस्बो में फुटबॉल खेलने जाते थे...फिर उसके बाद , बनारस,आये तो, सी०एच०एस०, बी०एच०यू० में भी, फूटबाल में, अपने कम उम्र के बावजूद, अच्छे खेल की वजह से बड़े छात्र उनको " बालक " की उपाधि से नवाज़ दिए, बाद में , नॉकरी करते हुए, वह डी०एल०डब्ल्यू० के लिए भी फूटबाल खेले...
बहुत सी तस्वीरें और इनामी शील्ड-कप, मैंने अपने होश सँभालते सँभालते देखा, जिसकी वजह से आज भी मुझे अपने पापा पर अत्यंत गर्व है !
पापा के फूटबाल की कहानियां किसी और दिन,
तब तक अपने पापा के साथ, शोर शराबे और रेफरी की व्हिसल के बीच,
डी०एल० डब्ल्यू० के स्टेडियम में लोहे की रेलिंग पर बैठकर, बारिश की छिटपिट बूंदों और फूटबाल की यादों संग ख्यालों की रहगुज़र में भींगते हुए...
मैं और मेरी आवारगी !
और हाँ , होगा , अगर क्रिकेट धरम, तो भगवान् सचिन !
अगर हॉकी धरम, तो ध्यानचंद या शाहिद भगवान् !
और हैंड ऑफ़ गॉड लिए मैराडोना फूटबाल का भगवान् ...
परन्तु उस नन्हे बालक का आजतक, भगवान् सिर्फ एक है ...
उसका फुल्ल बैक, फुटबॉलर पापा !

- अभय सुशीला जगन्नाथ


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