हाथ में कलम, टेबल पर किताब

 कागज़ की किश्ती लिए,

बारिश का इंतज़ार करते,
क्या पता ?
उस गली के मोड़ पर,
जवानी फिर बचपन से जा मिले...
मैं और मेरी आवारगी !
इस फ़िराक़ में,
रोज़ उसी गली के,
सुनसान मोड़ पर,
उसी सूनी खिड़की पर ...
आवारा ! एकटक, निगाह गड़ाए...
आवारगी करते रहते हैं !
DLW के क़्वार्टर की खिड़की से,
हाथ में कलम,
टेबल पर किताब,
परन्तु चंचल मन की,
अल्लहड़ चंचलता लिए,
बचपन के एक दोस्त,
एक बड़े भाई,
और एक पड़ोसी,
'काशी' के 'काशी', की खिड़की तक,
यादों की रहगुज़र से आवारा,
यूँ ही गुज़रते...
मैं और मेरी आवारगी !

- अभय सुशीला जगन्नाथ


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