अधखुली खिड़की - 2
कैसे पढू मैं इन आँखों को,
जो शर्म से झुक जाती है,
सुनयना तेरी ये बंद आंखे,
कई फ़साने छिपा जाती है...
गीत गाती है ये कोई,
या ग़ज़ल कोई गुनगुनाती है,
या आवारगी मेरे कलम की,
जो इन पलकों के खुलते ही,
चाँद सितारों सी झिलमिलाती है,
और यूँ ही कोई गोधूलि गीत,
या कोई शाम-ए-ग़ज़ल,
कलमबद्ध कर जाती है...
कभी कभी अधखुली खिड़की के,
लहराते परदों से झांकती आँखें,
जब पलकें कभी उठाती और झुकाती हैं,
यकीन मान, तेरी इस अल्हड़ अदा से,
मेरी धड़कने, अक्सर ठहर सी जाती है...
चंचल बादल, आवारा घटाएं,
तुझसे ठिठोली करने को,
अनायास दीवानगी में उमड़ जाती हैं,
और तुझे छूने के बहाने ये आवारा,
सब को नाहक बारिश में भीगा जाती हैं,
फिर बड़ी नज़ाकत से बूँदें बन,
तेरे संगमरमरी बदन का लुफ्त उठाती है,
मैं भी दीवाना फिरता हूँ,
तेरे हुस्न की दीवानगी में,
गलियों के चक्कर लगाता हूँ,
बरखा-बादलों संग प्रतिभागी में,
पर आकर्षक बदन को छूने नहीं,
मैं आवारा फिरता रहता हूँ,
छूने उस पाक रूह की आवारगी में
- अभय सुशीला जगन्नाथ
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