अधखुली खिड़कियां

 चलो आज तुमको,

संग में आवारगी कराएं,

उन आवारा गलियों की,

यूँ ही तुझे सैर कराएं,

जहां फिर से झांके,

वो अधखुली खिड़कियां,

जो झोंखो से पूरी खुल जाए,

और वो,

हाँ हाँ वो सब की सब पर्दानशीने,

फिर से बेपरदा नज़र आये...

और कभी हम दिल को,

कभी दिल हमको समझाए,

कोई हुस्न-ए-परी कोई जन्नत-ए-हूर,

किस किस पर भला जान दी जाए...


आज भी अधखुली खिड़कियों पर,

जब कोई परदा वैसे ही बलखाता है,

यकीन मानो ! 

दिल-ओ-दिमाग सब हिला जाता है,

और मुझे बस तू,

तू ही तू नज़र आता है

यूँ ही, 

बस ऐंवी, 

आवारगी करता जाता है


                        - अभय सुशीला जगन्नाथ 





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