कलम वहीँ तोड़ आते हैं
कौन है तू,
कहाँ से आयी है,
इस जहाँ की नहीं लगती है,
शायद !
जन्नत-ए-शायर की रुबाई है,,,,
अनायास !
देखते हैं जब भी तुझे,
अक्सर विस्मित हो जाते हैं,
मैं और मेरी आवारगी,
कुछ यूँ,
तेरी खूबसूरती से टकराते हैं,,,
हर दफा,
एक नयी शख्सियत से
यूँ ही मिल आते हैं,,,,
हर दफा,
मैं और मेरी आवारगी,
खुशनुमा बहार से खिल जाते हैं,
हर दफा,,,,
तुझे वर्णित करने को,
कुछ ख़याल सोचते हैं,
और उन ख़यालों में खो जाते हैं,
खोये ख़यालों में,
कुछ नए शब्द पिरोते हैं,
और कुछ तोड़-मरोड़ लाते है,
फिर एक नाकाम कोशिश कर,
एक आधी-अधूरी कविता,
वहीँ मेज़ पर छोड़ आते हैं,
और हर मर्तबा लिखकर यूँ,
मैं और मेरी आवारगी,,,
वो कलम वहीँ तोड़ आते हैं !
- अभय सुशीला जगन्नाथ
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