खाके-वतन मेरे भी कफन में

इस पहलू से होकर जुदा,

दिल कर गए जो ख़िज़ाँ है,

वो शहीद-ए-आज़म,

न जाने अब कहाँ है,

शहीदों की चिताओं पर,

जुड़ते हैं हर बरस मेले

वतन पर मरनेवालों का 

यही बस बाक़ी निशाँ है 

अब और कुछ आरज़ू नहीं, 

बस एक ही आरज़ू जहन में,

रख देना कोई एक मुट्ठी,

खाके-वतन मेरे भी कफन में

                     
                             - अभय सुशीला जगन्नाथ


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