ये अधूरा इश्क़-ए-बनारस !

मैं और मेरी आवारगी,

सालों रहे शहर दर-बदर,

मिलकर यूँ जाने क्यों लगा,

आज आया हूँ अपने घर !

रुक, ज़रा सांस लेने दे,

कुछ देर थोड़ा साथ ठहर,

दिल की धड़कने जाने क्यों,

बेकाबू धड़क रही बेकदर !

आखिरी है शायद ये अपनी,

मुलाक़ात की शाम-ओ-सहर...

पर लिख कर तुझे ये वादा-ए-वफ़ा,

जुदा होंग हम इस घड़ी-इस पहर,

कि ...

जिस्म बदल जाएंगे, 

नाम बदल जाएंगे,

आवाज़ ये बंद होगी, 

और तन मिट जाएंगे,

पर अस्सी घाट के उसी सीढ़ी पर,

ये अधूरा इश्क़-ए-बनारस !

पूरा लिखने हम ज़रूर आएंगे...

मैं और तुम !

" हम "...ज़रूर आएंगे...


            - अभय सुशीला जगन्नाथ 



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