तू और तेरी दीवानगी, "मेरे" दिल पर गुजरती है !

बनारस शहर की,

संकरी तंग गलियों से,

गंगा घाट के खुले विस्तार में,

जो आवारगी स्वछंद उमड़ती है,

क्या आज भी तेरी खिड़की से,

वो अल्हड़ हवाएं गुजरती है ?


उन्ही आवारा हवाओं के दामन पे,

मैंने वो हाल-ए-दिल बयां है किया 

हाँ ! वही ! जो अक्सरहां,

तेरे, "मेरे" दिल पर गुजरती है !

वो आज भी शेर-ओ शायरी बन,

मेरे ज़ेहन में यूँ ही उतरती है...


अब देखें कब ये स्वछंद हवाएं,

तेरे कानों में वो सब कहती हैं,,,

और देखें कब ?

मैं और मेरी आवारगी,

तेरे झरोखे पर जाकर ठहरती हैं,,,

या फिर !

तू और तेरी दीवानगी, 

मेरे दरवाज़े का रुख़ करती है,,,,


बनारस शहर की,

संकरी तंग गलियों से,

गंगा घाट के खुले विस्तार में,

जो आवारगी स्वछंद उमड़ती है,

क्या आज भी तेरी खिड़की से,

वो अल्हड़ हवाएं गुजरती है ?


                             -  अभय सुशीला जगन्नाथ 


उन आवारा हवाओं के दामन पर,

मैंने वो हाल-ए-दिल बयां है किया,

जो आज भी शेर-ओ शायरी बन,

मेरे ज़ेहन में यूँ ही उतरती है...


हाँ ! वही ! जो अक्सरहां,

तेरे, "मेरे" दिल पर गुजरती है !


देखें कब ये स्वछंद हवाएं,

तेरे कानों में वो सब कहती हैं,

और देखें कब ?

मैं और मेरी आवारगी,

तेरे झरोखे पर जाकर ठहरती हैं,

या फिर !

तू और तेरी दीवानगी, 

मेरे दरवाज़े का रुख़ करती है


                       - अभय सुशीला जगन्नाथ 



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