वही बनारस, वही घाट

हर सहर जहाँ मिली तुम, ख़ुश्बू बिखेरे बाद-ए-सबा,
अजनबी सी लगती है, उस शहर की आब-ओ-हवा,

वही बनारस, वही घाट, पर कहाँ वो नाम-ओ-निशाँ...

उसी सुबह-ए-बनारस और गोधुलिया घाट पर काश,
हवाओं संग, फ़ज़ाओं फिर तू, लिख बिखेरे वो दास्ताँ,

मैं और मेरी आवारगी..और तंग ख़्वाबों दिल-ए-नादाँ...

                                                       
                                                    - अभय सुशीला जगन्नाथ 




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