सुनो ना चाँदनी ! सुनो न सुनयना !

सुनो न सुनयना ! 
पीपल तले वो पुराना मंदिर,
और तालाब किनारे वो स्कूल,
यूँ ही पड़ जाते हैं, 
अब भी मेरे डगर में...

मैं और मेरी आवारगी !
अक्सरहां जब चले जाते हैं,
नादान-अंजान से तेरे शहर में...

शायद ढूंढते हैं वो गली,
जो खो गयी उस राह गुजर में,
या फिर वो छत, वो चौबारा,
जहाँ खोए हम पहली नज़र में...

आज फिर ख्यालों के रहगुज़र में,
खुल रही है वो अधखुली खड़की,
जिनसे हटता था परदा कभी दोपहर में...

और निकल रहा है वो माहताब,
कभी चाँदनी सा चौथे पहर में...
और कभी बन वही आफताब,
एक नूर-ए-सहर, मेरी नज़र में...

सुनो ना चाँदनी !
क्या तू और तेरी दीवानगी भी,
यूँ ही फिरते हैं... ऐसे किसी सफर में !

                                 - अभय सुशीला जगन्नाथ 


Comments

Popular posts from this blog

राधा-कृष्ण ! प्रेम के सात वचन !

परी-सुरसुन्दरी, अप्सरा-देवांगना

बिन फेरे हम तेरे