वो नज़र, वहीं बेक़रार है...

माना आज संग में तेरे, करार-ए-दिल बेशुमार है,

पास है तू, फिर भी ये क्यूँ, ना जाने कैसा ख़ुमार है,

उसी वक़्त-ए-रुख़सत का, क्यूँकर मुझे इंतज़ार है...

मैं और मेरी आवारगी सोचते हैं यूँ ही कभी कभी,

शायद वो गली, वो मोड़, वो नज़र, वहीं बेक़रार है.. 

                                                         
                                              - अभय सुशीला जगन्नाथ



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