फिर जब तेरी महफ़िल सजी

फिर जब तेरी महफ़िल सजी,

तब समझा दिलको क्या भाता था,

कल तलक यहां वीरानी थी,

एक अजीब सा सन्नाटा था


इन अल्फाजों को दिलों मे सज़ा लो,

क्योंकि इस महफ़िल में हमारे बाद,

फिर से वही गुमसुम तन्हाई होगी,

जैसा पहले वीरान सन्नाटा था


महफ़िल में कई मोहतरमा,

और कई जनाब आये,

पर महफ़िल में चढ़ा शबाब,

जब आया वो लाल गुलाब ...


क्या नज़ाकत, न पूछो जनाब,

आज भी वही क़ातिल अदा,

खुद से ही शरमाता और इठलाता,

वो बेनज़ीर हुस्न-ए-शबाब

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