हर-सु बस तू ही तू

रफ़ीक़ था तू, अब रकीब भी तू फिर क्यूँ है तेरे वस्ल की ज़ुस्तज़ू

क्या करूँ, कहाँ जाऊं, कैसे रहूँ हर-शय में तू, हर-सु बस तू ही तू

शाम-ओ-सहर की ये आवारगी और तेरी उसी गली की आरज़ू ...   - अभय सुशीला जगन्नाथ 

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