परी-सुरसुन्दरी, अप्सरा-देवांगना
आँखों में शरारत, अंदाज़ में बेबाकपन, जैसे अल्हड़ बचपन ... ये शर्म-ओ-हया, धड़कनों की घबराहट, उसपर सुंदर मुस्कराहट ... तौबा ये शबाब, खुशबू जैसे गुलाब, सादगी में भी ताज़गी ... अद्भुत नज़राना, कौन हो तुम, परी या सुरसुन्दरी, अप्सरा-देवांगना ... तुमको खुदा ने बनाया है, या खुद को ही, ज़मीन पर ले आया है ... - अभय सुशीला जगन्नाथ --------------------------------------------------- मैं शब्द रखता हूँ, वो ज़ज्बात उठाती है , मेरे कोरे कागज़ों पर, किसी कविता सी उतर जाती है पर पूरी कविता में भी, वो कहाँ खरी उतरती है, रोज़ रोज़ भला जन्नत से, कहाँ ऐसी परी उतरती है - अभय सुशीला जगन्नाथ