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Showing posts from January, 2022

दीवानों के सपने

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दीवानों के सपने देखने का, हिसाब न पूछो ऐ जनाब ! अक्सरहां खोजते रहते हैं, किसी कमसिन मे आफताब,  तो किसी नाज़नीन मे माहताब ! इंतेहा देखिए इनके ख्वाबों की, हर एक से ये करते फिरते हैं, इश्क़ बेइंतेहा तो आशिक़ी बेहिसाब ! गर कभी हक़ीक़त हो जाये वो ख्वाब, तब दीवाना-ए-आलम न पूछिये जनाब,  पगला जाते हैं देखकर वो हुस्न-ए-शबाब ऐसे ही सपने में खोए एक .....                                                                   - अभय सुशीला जगन्नाथ 

हिचकियाँ

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 कुछ दोस्त हमें इतना याद करते हैं,  कि जब भी कभी हम भोजन करते हैं, तो अपने प्यारे बनारसी आशीर्वचनों से, सालाS -बीच बीच में हिचकियाँ भरते हैं, .........वाले दोस्ती निभाने में, हम भी कम थोड़े ना हैं, हर एक निवाले के संग, हम भी इंतज़ार करते हैं, पता तो चले भला वो यूँ, कब बनारसी अंदाज़ में, गरिया गरिया कर हमे, दिल से याद करते हैं ! खाने के समय बनारसी आशिर्वचनों से सुसज्जित अलंकारों से हिचकी दिलाने वाले बनारसी                                                                                                                     - अभय सुशीला जगन्नाथ 

कटी पतंग

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आज फिर मन की पतंग, बचपन में गोते लगा रही है, दिल की लटाई से शायद, तुमने वो यादें ढील रक्खी हैं आज लटाई और मांझे देख, फिर सब्र के बांध टूटते हैं, चलो दोस्त एक बार फिर, दौड़-दौड़ कटी पतंग लूटते हैं                              - अभय सुशीला जगन्नाथ 

भक्क कटे !

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तेरी खुशनुमा यादें ऐ दोस्त, आज भी किश्तों में आती है, तेरी दोस्ती का मूल धन,  दिल मे जो बचा रक्खा है ... खिचड़ी में देख आज फिर, छतो पर पतंग लिए बच्चों ने, एक दूसरे से पेंच लड़ा रक्खा है, और भक्क कटे की गूंज से,  मैंने फिर से तेरी शरारतों की,  नई किश्त का मज़ा चक्खा है ... भक्क कटे थे कभी अपने भी पतंग, तुझसे एक पेंच लड़ाने के संग, मैं और मेरी आवारगी, उन्ही यादों के मांझे में उलझे, छोटी छोटी किश्तों में मलंग ... आज फिर से लपेट-ढील रहे हैं, वही फक्कड़ी बनारसी परेते, और उनसे उड़ते रंग बिरंगे पतंग ...                               - अभय सुशीला जगन्नाथ   आज फिर मन की पतंग, बचपन में गोते लगा रही है, दिल की लटाई से शायद, तुमने वो यादें ढील रक्खी हैं ------------------------------------------------------------- आज लटाई और मांझे देख, फिर सब्र के बांध टूटते हैं, चलो दोस्त एक बार फिर, दौड़-दौड़ कटी पतंग लूटते हैं                                                     - अभय सुशीला जगन्नाथ 

हाथों में वही लकीर

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तू आ कर मिला जा, फिर एक बार हाथ से हाथ, तुझसे अपनी तकदीर है सजानी, जो उस ना-खुदा ने नही है खींची, अब हाथों में वही लकीर है बनानी... तेरे हाथों से हाथ मिलाने को संग अल्हड़ खिलखिलाने को, और नए वर्ष में नए खुशनुमा,  ख्वाब-ओ-ख़यालात सजाने को, बेचैन और बेताब,  मैं और मेरी आवारगी...                               - अभय सुशीला जगन्नाथ