यूं ही संजीदा
यूँ ही हंसते खेलते न जाने कब वो बचपन गया, बेतरतीब जवानी आयी अल्हड़-ओ-आवारा हुए, आंखे मिली, मुस्कान खिली, उनसे आशिक़ी हुई, और मयखाने पहुंच गए जब इश्क़ में बेकारा हुए... मैक़दे समझ आया, कि उन आँखों मे जो नशा था, वो मय-ओ-मयखाने से अलहदा, एकदम जुदा था, उनकी आंखें, आज भी , वो ही नादानी करती हैं, और मैं और मेरी आवारगी, यूं ही संजीदा रहते हैं और मैं और मेरी आवारगी, यूं ही मुस्का उठते हैं - अभय सुशीला जगन्नाथ