अल्हड़ मुस्काती लड़की, आवारा मनमौजी लड़का,

किसी गली के मोड़ पे,
रंग-बिरंगे परदों के बीच,
एक अधखुली खिड़की...

बाहर एक साइकिल रोक,
चढ़ी हुई चेन चढ़ाता लड़का, 
गमलों बीच झांकती लड़की...

पुराने मकान के चौबारे पे,
चमकती बिजलियों के बीच,
बादलों की गरजती घुड़की...

पेड़ों के नीचे छिपता-छिपाता,
अंजुर में बूंदे संजोता लड़का,
ज़ुल्फ़ों बारिशें बरसाती लड़की...

किसी मोहल्ले के छत पे,
चाँदनी रात में सितारों बीच,
जुगनुओं की जगमगाहट हल्की...

उसी लाइट कटी अँधेरी चाँदनी,
टॉर्च जलाता और बुझाता लड़का,
मोमबत्ती जलाकर शर्माती लड़की...

फिर आगले दिन सुबह-सबेरे,
स्कूल-कॉलेज को आते जाते...
कभी साइकिल, तो मोटर-साइकिल, 
अल्लहड़ हवा संग उड़ाता लड़का...
कभी रिक्शा, तो लूना-स्कूटी,
वो बाद-ए-सबा महकाती लड़की...

उसी स्कूल-कॉलेज सीढ़ियों पे,
खामोशियों की सरगोशियों में,
डर-डर कर हकलाता लड़का,
थर-थर कर थर्राती लड़की...

आज भी किसी गली के मोड़ पे,
किन्ही रंग-बिरंगे परदों के बीच,
होगी कहीं एक अधखुली खिड़की...
वहीं चबूतरे पे गप्पे लड़ाता लड़का,
और स्टडी-टेबल वो पढ़ती लड़की...

उल्टी चला कर वक़्त की चरखी,
पुरानी यायावरी से आज फिर यूँ ही,
मैं और मेरी आवारगी, ले रहे फिरकी... 

कि कहीं तू ही तो नहीं,
वो आवारा-मनमौजी लड़का,
और तू वो अल्हड़ मुस्काती लड़की...

                                    - अभय सुशीला जगन्नाथ 

कहीं किसी बाजार अक्सर,
तीखे खट्टे पानी से तर-बतर,
गोलगप्पे के टपरी-ठेले पर...

वो आँखों आँसू बहा-बहा,
कैसे भी निपटाता लड़का...

तीखे गुपचुप गप-गप खाती,
मुस्कान लिये शर्माती लड़की... 

                               - अभय सुशीला जगन्नाथ 


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