खुदा से रूठे तो, साकी से इश्क़ फरमा बैठे, मुझे छोड़ कर, तुम ये क्या कर बैठे, अभी भी देर नहीं हुयी ऐ मेरे दोस्त ! चल चर्चा शुरू करते हैं, उस बेवफा इश्क़ की, जो कुल्हड़ की चाय छोड़, तुम जाम से दिल लगा बैठे, एक हाथ में चाय होगी, और दूजे हाथ में सिगरेट, बुनेंगे कुछ शेर-ओ-शायरी, उसी पेड़ के नीचे वाली टपरी पर, फुर्सत में बैठे बैठे ! उसकी दो आँखों से, बयां होते हज़ारों अफ़साने, तूम लफ़्ज़ों में सुनाना, मैं शायरी में उतारूंगा, सुबह सी उठती आँखें ! शाम सी कजरारी आँखें ! सुन्दर सपनो में खोयी, वो बंद हसीन आँखें ! वफ़ा, बा-वफ़ा और बे-वफ़ा, फक्र, फिक्र और फिर फ़ना ! ऐ दोस्त ! तेरी हर एक बात, उसी टपरी पर बैठे बैठे, हम भी लिखने को बेतक्क्लुफ़, एक हाथ में कागज़-कलम, और दूजे हाथ में सिगरेट जला बैठे ! वो कैसे हंसती थी, कैसे गुस्साती थी, और कैसे कभी कभी, बेवजह गुमसुम हो जाती थी, और फिर पूछने पर, " कुछ नहीं " बोल बस मुस्काती थी, खुदाया इश्क़े इबादत, कब वो चाँद हो गयी, और कैसे उस चाँद के लिए, इसी टपरी के नीचे बैठे बैठे, एक हाथ में कुल्हड़ की चाय, और दूजे में उसका हाथ लिए,...