मैं और मेरी आवारगी , बस एक नहीं कई बार तुझे, फिर से देखना चाहते हैं, हाँ ! ये दुआ मांगते हैं, जब तेरी उन्मुक्त हंसी पर, बचपन में थे दोनों फूल से खिलते, और चंचल मन के झूलों में, सपनो संग थे हवा में झूलते ! सहेलियों संग रस्सी कूदते, इक्क्ठ दुक्कठ की चौकठ चूमते, अल्लहड़ बांकपन में फिर से झूमते, और यूँ ही अकेले छत पर घुमते, खुले आसमान में खुद की स्वछन्द, उन्मुक्त ऊंची एक उड़ान ढूंढते, और रात को उसी उड़ान से थक कर, स्टडी टेबल पर किताब संग ऊंघते, फिर खुद की इन नादानियों पे, आपने आप में यूँ ही हँसते, पर मुझ पे जब नज़र पड़े तब, त्योरियां चढ़ा और ऐंठा मुँह बना, तीखे नयनो से मुझे ऐवीं घूरते, फिर से देखना चाहते हैं, हाँ ! ये दुआ मांगते हैं ! वह कप और गिलास में, ज्यादा चाय लेने की लड़ाई, एक दूजे के प्लेट में धीरे से, पनीर और अंडे की चुराई, फिर उस एक प्लेट में ही, बॉर्डर खींच-खींच कर खाने की, अनगिनत बार छिना-झपटायी ! तुमने चावल के नीचे घी छिपाकर, जाने कितनी ही बार निपटाई, और मैंने भी क्या खूब थी खाई, रात में तुझसे चुपके-छुपके, चुराई हुयी मक्खन और मलाई, पर मजे की बा...